चींटी और टिड्डा
परिचय
गंगा के किनारे बसा एक छोटा-सा गाँव था, जिसका नाम था हरियाली। यह गाँव अपनी हरी-भरी फसलों, रंग-बिरंगे फूलों और पक्षियों की मधुर चहचहाहट के लिए जाना जाता था। गाँव के पास एक घना जंगल था, जहाँ छोटे-बड़े जीव-जंतु एक साथ रहते थे। इसी जंगल में एक मेहनती चींटी और एक बेफिक्र टिड्डा रहते थे। चींटी का नाम था चेतना, जो अपनी मेहनत और लगन के लिए जंगल में मशहूर थी। दूसरी ओर, टिड्डा, जिसका नाम था गीतू, अपनी मस्ती और गायन के लिए जाना जाता था।
चेतना हर दिन सुबह जल्दी उठती और जंगल में भोजन इकट्ठा करने निकल पड़ती। वह छोटे-छोटे अनाज के दाने, पत्तियों के टुकड़े और फलों के छोटे-छोटे हिस्से अपने बिल में जमा करती थी। दूसरी ओर, गीतू दिनभर जंगल में उछल-कूद करता, पेड़ों पर गाना गाता और धूप में आराम करता। वह चेतना की मेहनत को देखकर हँसता और कहता, "अरे चेतना, इतनी मेहनत क्यों करती हो? गर्मियों का मौसम है, मजे करो, गाना गाओ, नाचो! सर्दी तो अभी बहुत दूर है।"
चेतना मुस्कुराकर जवाब देती, "गीतू, आज मजे करने का समय है, लेकिन सर्दी के लिए भी तैयारी करनी होगी। मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है।"
गर्मियों की मेहनत
गर्मी का मौसम अपने चरम पर था। सूरज आग बरसा रहा था, लेकिन चेतना अपनी मेहनत में कोई कमी नहीं लाती थी। वह सुबह से शाम तक अनाज के दाने ढूंढती, उन्हें अपने छोटे-से बिल तक ले जाती और सावधानी से जमा करती। उसका बिल धीरे-धीरे अनाज से भरने लगा। वह जानती थी कि सर्दी के दिन कठिन होंगे, जब जंगल में खाना मिलना मुश्किल हो जाएगा।
गीतू, दूसरी ओर, गर्मियों का पूरा आनंद ले रहा था। वह फूलों के रस का मज़ा लेता, पेड़ों की छाँव में सोता और अपने गानों से जंगल को गूँजायमान करता। जब भी वह चेतना को मेहनत करते देखता, वह उसका मज़ाक उड़ाता। "चेतना, तुम तो बस काम ही करती रहती हो। ज़िंदगी को थोड़ा जी लो!" वह हँसते हुए कहता।
चेतना जवाब देती, "गीतू, मेहनत करना भी ज़िंदगी का हिस्सा है। आज की मेहनत कल हमें सुकून देगी।"
सर्दी का आगमन
जल्दी ही गर्मियाँ बीत गईं, और सर्दी ने दस्तक दे दी। जंगल में हवा ठंडी हो गई, पेड़ों की पत्तियाँ झड़ गईं, और खाने की तलाश में जंगल सूना हो गया। चेतना अपने बिल में सुरक्षित थी। उसने गर्मियों में जो अनाज जमा किया था, वह अब उसके काम आ रहा था। वह अपने बिल में आराम से बैठकर खाना खाती और ठंड से बची रहती।
लेकिन गीतू की हालत खराब थी। उसने गर्मियों में कोई तैयारी नहीं की थी। अब उसके पास न खाना था, न ही कोई गर्म जगह। वह भूखा-प्यासा जंगल में भटक रहा था। ठंडी हवाएँ उसे और कमज़ोर बना रही थीं। आखिरकार, वह हिम्मत हारकर चेतना के बिल के पास पहुँचा।
उसने काँपते हुए आवाज़ लगाई, "चेतना, मेरी मदद करो! मैं भूखा हूँ, और ठंड में मर रहा हूँ।"
चेतना ने दरवाज़ा खोला और गीतू की हालत देखकर उसे बहुत दया आई। उसने गीतू को अंदर बुलाया, उसे गर्म जगह दी और कुछ अनाज खाने को दिया। गीतू ने भूख मिटाई और चेतना का शुक्रिया अदा किया।
"चेतना, तुमने इतना अनाज कैसे जमा किया?" गीतू ने पूछा।
चेतना ने मुस्कुराते हुए कहा, "गीतू, यह गर्मियों की मेहनत का फल है। मैंने तुम्हें पहले ही कहा था कि आज की मेहनत कल हमें सुकून देगी।"
सबक
गीतू को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने चेतना से वादा किया कि वह अगली गर्मियों में मेहनत करेगा और सर्दी के लिए तैयारी करेगा। चेतना ने उसे माफ कर दिया और कहा, "कोई बात नहीं, गीतू। गलतियों से हम सीखते हैं। बस अब से समय का सही इस्तेमाल करना।"
उस सर्दी में गीतू ने चेतना के साथ रहकर बहुत कुछ सीखा। अगली गर्मियों में वह चेतना के साथ मिलकर मेहनत करने लगा। उसने अपने लिए अनाज जमा किया और सर्दी के लिए तैयारी की। जब अगली सर्दी आई, गीतू अपने बिल में सुरक्षित और खुश था। उसने चेतना का धन्यवाद किया, जिसने उसे मेहनत का महत्व सिखाया।
निष्कर्ष
यह कहानी हमें सिखाती है कि मेहनत और दूरदर्शिता ज़िंदगी में कितनी महत्वपूर्ण है। जो लोग समय रहते तैयारी करते हैं, वे मुश्किल वक्त में भी सुरक्षित और खुश रहते हैं। गीतू की तरह हमें अपनी गलतियों से सीखना चाहिए और मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है, यह बात याद रखनी चाहिए।
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